नहीं पूछता कोई !
नहीं पूछता कोई !
जमाना बड़ी तेजी से बदल रहा है,
बेटा,बाप के पीछे कहाँ चल रहा है?
सभ्यता की आँखों से बह रहा आंसू ,
खुद का खून, खुद को छल रहा है।
कट रहा वृद्धाश्रम में वालदेन के दिन,
थका - माँदा सूरज वहाँ ढल रहा है।
निचोड़कर जवानी में बनाया था घर,
एक -एक पल देखो वो खल रहा है।
नहीं पूछता कोई कैसे हो आकर,
कलेजे पे देखो नश्तर चल रहा है।
उनके भी दिन जब ढलेंगे जवानी के,
उस दौर का भी भविष्य पल रहा है।
नफा-नुकसान पर अब टिका है रिश्ता,
उसूलों का माथा कौन कुचल रहा है।
जड़ को काटना कहाँ तक मुनासिब,
अंदर - अंदर रोग कैसा पल रहा है।
अश्कों की कतार में यहाँ खड़ा किया,
मेरी ख्वाहिशों को क्यों कुचल रहा है।
मिलेगा न मोक्ष, उल्टे ऐसे क़दम से,
नई इस पीढ़ी को कौन छल रहा है।
रामकेश एम. यादव(कवि, साहित्यकार)मुंबई
Gunjan Kamal
10-Jan-2023 09:57 AM
बहुत खूब
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Abhilasha deshpande
10-Jan-2023 07:35 AM
बेहतरीन
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Abhinav ji
10-Jan-2023 07:30 AM
Very nice sir 👍👌👍
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